नई दिल्ली | कई महीनों की टाल मटोल के बाद पाक सरकार ने गुरुवार को भारतीय उच्चायोग के अधिकारियों से भारतीय नौ सेना के पूर्व अधिकारी कुलभूषण जाधव को मिलने की इजाजत दे दी। हालांकि इस दौरान दोनों के बीच खुलकर कोई बातचीत नहीं हो सकी और न ही ना ही किसी कागजात पर जाधव को हस्ताक्षर करने दिया गया। भारत ने पाकिस्तान की इस कार्रवाई को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) की तरफ से जाधव पर दिए गए फैसले व पाकिस्तान सरकार को दिए गए निर्देश के खिलाफ बताया है। दरअसल पिछले सप्ताह ही पाकिस्तान की तरफ से खबर आई थी कि जाधव ने अपनी सजा पर पुनर्विचार याचिका लगाने से मना कर दिया है और चाहते हैं कि उनकी दया याचिका को आगे बढ़ाया जाए। इसके बाद से ही लगातार पाकिस्तान के संविधान अनुच्छेद की चर्चा की जा रही थी।

आपको यहां पर ये भी बता दें कि 27 फरवरी 2019 को पाकिस्तान की सेना द्वारा बंधक बनाए गए भारत के विंग कमांडर वर्थमान को जब पाकिस्तान की सरकार ने बिना शर्त रिहा करने का फैसला किया था तो उनकी रिहाई से कुछ घंटे पहले ही पाकिस्तान के एक नागरिक ने सरकार के इस फैसले को अनुच्छेद 199 के तहत ही चुनौती दी थी। इसके तहत कहा गया था कि भारतीय पायलट ने पाकिस्तान की सीमा का उल्लंघन किया और इसकी मंशा पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध छेड़ने की थी, लिहाजा उनका कोर्ट मार्शल किया जाना चाहिए था।
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आपको बता दें कि पाकिस्तान के संविधान का अनुच्छेद 199 हाईकोर्ट को किसी भी मामले की न्यायिक समीक्षा करने का अधिकार प्रदान करता है। संविधान के मुताबिक पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय का जो शक्तियां अनुच्छेद 183(3) के तहत प्रदान की गई है उनकी अपेक्षा हाईकोर्ट को अनुच्छेद 199 के तहत प्रदान की गई शक्तियां कहीं अधिक विविध और व्यापक हैं। पाकिस्तान के हाईकोर्ट द्वारा अनुच्छेद 199 के तहत पारित किए गए आदेश को याचिका या writ भी कहा जाता है। पश्चिमी पाकिस्तान की हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस रुस्तम कयानी न्याय क्षेत्राधिकार के बड़े प्रशंसक थे। 1958 में जब उन्हें चीफ जस्टिस नियुक्त किया गया तो उन्होंने Mandamus और Certiorari को एक फूल की संज्ञा देते हुए कहा था कि इसके बिना पाकिस्तान आगे बढ़कर अपनी खुशबू नहीं फैला सकता है। जस्टिस कयानी को पाकिस्तान के पूर्व तानाशाह जनरल अयूब खान का विरोध करने वाली बड़ी शख्सियत के रूप में जाना जाता है।
इस याचिका को खारिज इस्लामाबाद हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस अथर मिनाल्लाह ने कहा था कि ये फैसला पाकिस्तान की संयुक्त संसद ने सर्वसम्मिति से लिया है और किसी ने भी इसके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाई। कोर्ट का कहना था कि याचिका में जिन बातों को कहा गया है वो देश की विदेश नीति, सुरक्षा से जुड़ी हैं। इस तरह के मामलों में दखल देने का हाईकोर्ट को कोई अधिकार नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 199 के तहत न तो ये मामले आते हैं न ही हाईकोर्ट इस अनुच्छेद के तहत इनमें कोई दखल दे सकता है। कोर्ट ने ये भी कहा कि मजलिस ए शूरा देश की जनता को रिप्रजेंट करती है और देश के लिए काम करती है। वो पूरी तरह से अपनी नीतियों को बनाने और इस पर अमल करने के लिए स्वतंत्र और इसके काबिल है। उनके द्वारा लिए गए फैसले को हाईकोर्ट संज्ञान में नहीं ले सकती है। ये उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है।